Saturday, January 24, 2009

ख़ुद की अदालत

एक ने लिखा है कि वो परेशां है। वो कॉरपोरेट में काम करता है , उसे लगता है कि वो जहाँ हो सकता था वहां इसलिए नहीं पहुँच पाया है क्योंकि जो नाकाबिल हैं , वो बेवज़ह उससे आगे हैं।
मेरे भाई! ...ये सच है कि ऐसा होता है, पर हमेशा ही हो ऐसा भी नहीं है, इसीलिए लिख रहां हूँ, इस पर भी गौर करना :

गर किसी की ख्वाहिश है कि वो तारों की सवारी करे
तो ये भी ज़रूरी है कि वो कुछ और तैयारी करे

गर लगे उस नाकाबिल को मिला , जो मेरे मुकाबिल नहीं
तो हकीकत के बाज़ार में तू अपनी ख़ुद बाजारी करे

ख़ुद को रख आईने में और ख़ुद की कीमत लगा
ख़ुद को तोले और ख़ुद ही ख़ुद की ख़रीददारी करे

जब उम्मीद के चिराग बेनूर हों और तमन्नाएँ बेहिसाब जगें
तो ऐसे में जरूरी है कि अपने ईमान की पहेरदारी करे

हक तभी है तुझे अपने बारे में फैसला लेने का
जब शर्त ये पूरी हो कि तू ख़ुद की तरफदारी करे

नीलेश
मुंबई