Friday, July 31, 2009

दुनिया का ये अजब दस्तूर है ... अपनी आँख ही अपने से दूर है

जिंदगी में हम... जाने कौन-कौन से किरदार निभाते हैं। एक फनकार की तरह हमें हर नए किरदार के लिए एक नया रूप रचना होता है ... मुखौटे भी लगाने होते हैं ... लेकिन आज की जिंदगी में जो दोहरापन हम जीने को मजबूर हैं ... वो इन अस्थायी मुखौटों को इतना स्थायी बना देता है कि हम उस झूठे चेहरे को ही सच मान बैठते हैं ... और तब एक अजब-सी बेचैनी भी होती है...जब आइना सामने होता है ... आँख को आँख तो दिखती है पर असली चेहरा नहीं तब हम अपने को ख़ुद ही नहीं पहचान पाते हैंआज इसी पर कुछ...

आँखें जिस चेहरे पर हैं
उसे देखने को तरस गयीं
सूरतें इस कदर
मुखौटों से चिपक गयीं...


आपका नीलेश
मुंबई