Monday, August 3, 2009

'ध्यान' क्या है ?... क्या है 'ध्यान' ?!?... है क्या 'ध्यान' !!!

ये प्रश्न कोई नया नहीं है ... और मेरे लिए तो कदापि नहीं क्योंकि मैं अक्सर स्वयं से ये सवाल करता रहा हूँ। मैं कोई ज्ञाता नहीं पर मुझे लगता है कि लोग अक्सर शाब्दिक मौन को 'ध्यान' समझ लेते हैं; परन्तु अगर यही 'ध्यान' है तो यह कितना सतही और तर्कहीन होगा । इस परिस्थिति में तो जो कोई भी मूक होगा वो ध्यानस्थ मान लिया जाएगा, पर क्या यह उचित होगा? हाँ ये स्वीकार किया जा सकता है कि 'मानसिक मौन' ही ध्यान हो सकता है। ये वो अवस्था होगी जिसमें मानस शून्य-सा हो जाए ... विचार शून्य-सा। अगर ऐसा हुआ तो फिर इस निर्विचारावस्था से लाभ क्या? फिर लगता है कि अपने सन्निकट वातावरण से पूर्ण रूप से कट जाना ही ध्यानस्थ होना होता होगा ... पर ये तो बेहोशी हुई ! ऐसा लगता है कि जिस क्षण में जो मानस में केंद्रित है और जो उस क्षण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं अपेक्षित है ... उस के मूल तक पहुँच जाना ही 'ध्यान' का लक्ष्य होता है ...' ध्यान' होता है । संभवत: इसीलिए हमे सदैव - प्रतिदिन 'ध्यान' की आवश्यकता पड़ती है। मैं ये जानकर कभी भी प्रभावित नहीं होता कि वो इसलिए महान है कि उसने इतना लंबा तप किया ...ऐसे में मुझे लगता है कि समयावधि का दीर्घ होना उस केन्द्र तक पहुचने के लिए लिया गया वो समय है जो एकाग्रता की कमी से जन्मा क्योंकि सत्य तो ये है कि हम तप तो उस क्षण के लिए ही करते हैं जिस क्षण में विवेचित विषय फलीभूत हो जाए.... इसीलिए आज तक की जितनी समझ है ... उसके अनुपात में इतना ही :

तप के युग होते हैं; पर बोध का
क्षण !

आपका नीलेश
मुंबई