Friday, August 7, 2009

परिभाषा नहीं जानता; परन्तु परिभाषित कर रहा हूँ!

'अपरिग्रह' को आज के सन्दर्भ में कैसे समझ सकते हैं ?
संभवत: इस प्रश्न के प्रश्नकर्ता की अपेक्षा शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं है । शास्त्रीय परिभाषा तो जानना मैं भी नहीं चाहता; परन्तु नये रूप में परिभाषित कर रहा हूँ, इस आशा के साथ कि शायद इस रूप में ये अधिक जीवनोपयोगी हो सके । इस तरह के प्रश्न नवीन सहज एवं सुबोध रूप में ही समझाये जाने की युगीन अपेक्षा रखते है ।
आओ अब समझें ... 'ग्रह' को केन्द्र भी कह सकते हैं; क्योंकि ये गोल होता है और 'परि' को परिधि का संक्षिप्त रूप मान लें । तो बात ये समझ में आ सकती है कि जब हम स्वयं को ही केन्द्र मानकर परिधि खींचना शुरू कर देते हैं, तो हम 'परिग्रही' हो जाते हैं ...तब हम स्वयं से परे नहीं सोच पाते, तब वो परिधि हमे सीमित कर देती है ... अपने तक समेट देती है ... ऐसे में हम स्वार्थी हो जाते हैं ... और तब हम सब अपने लिए ही संचित कर लेना चाहते हैं... संचित करने के प्रयास में हम संकुचित एवं संकीर्ण हो जाते हैं । इससे हम दूसरों को उनके अधिकार से वंचित कर देते हैं और स्वयं के विकास की संभावनाओं को भी संकीर्ण कर देते हैं । इसीलिए यदि हम 'अपरिग्रही' हो जाएँ ... तो हम-सबका विकास सुनिश्चित हो सकता है । इसीलिए ...

ग़लत अपने को केन्द्र मानना नहीं है ...
ग़लत तो है अपने को ही केन्द्र मानकर परिधि खींच लेना


आपका नीलेश
मुंबई