Wednesday, November 4, 2009

वो दरख्त खो गए हम जिनकी शाख थे !


जो मैंने खोया ...
वो उसने भी खोया है ...
मेरी तरह वो भी बहुत रोया है ...
वो 'बड़ा' होकर भी मेरे छोटे भाई जैसा ही है ...
उस दिन लगा सब कुछ वैसा ही है ...

फर्क तो बस होता है जीते हुए इंसानों में
पर वो भी मिट जाता है आंसूं और श्मशानों में
नहीं तो भला क्या फर्क था उस दिन
उस आखिरी सफ़ेद लिबास में ...
उनके ठंडे पड़ चुके सर्द एहसास में ...
राम के नाम या चिता की तपन आग में ...
हमारी आँख की नमी या फिर 'राख' हो चुकी राख में ...
या उनके लिए कुछ कम कर पाने के गहरे पश्चाताप में ...
तब समझ आया बनता है नया रिश्ता दुःख की तपती आंच में !


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सादर नमन !
मौन शब्द- श्रद्धांजलि !!

नीलेश , मुंबई