Thursday, March 25, 2010

कभी 'रास्ता मिल जाए'...यही मंजिल होती है .

किसी ने लिखा है कि वो अपने मुकाम को पाना चाहता है ... पर क्या पता जिसे हम मुकाम मान रहे हों ...वो मुकाम हो भी या नहीं । सच तो ये है कि हम में से कोई भी नहीं जानता कि पहुंचना 'कहाँ' है ....या 'कहाँ तक' पहुंचना हैं या कहाँ तक पहुंचा जा सकता है...

आज का कल हम भला कैसे निश्चित कर सकते हैं ! हम आज जिसे मंजिल मानते हैं ... वो हमारे आज की अपेक्षा और सामर्थ्य की सीमा की सीमा होती है। क्या पता कल हमारी सीमाएं यहीं तक रहें या ....। इसीलिए हम दरअसल मंजिल की नहीं राहों की तलाश करते हैं ... और राहों को मंजिल नहीं समझना चाहिए .... और बस बढ़ते रहना चाहिए ....अनन्त की ओर ...

आपका नीलेश