Saturday, December 28, 2013

अपने 'आप' को एक सीख 

बाहर से उजले 
अंदर से गंदे हैं 
किराये के बिस्तर की तरह 
सियासत के धंधे हैं 

बच के रहना! 
बचे रहना !!

अपने-आपका
नीलेश जैन
मुम्बई 

Sunday, November 10, 2013

एक नदी
उत्तर से दक्षिण की ओर बहती थी
जितनी बाहर
...  उतनी ही अंदर भी  रहती थी

बहुत पहले कभी ...
ये जानने की ललक में
कि उस पार क्या है
लोगों ने उसे तैर कर पार किया
फिर कुछ ज़रूरतें बढ़ीं
फिर कुछ नावों को तैयार किया

फिर आवागमन, परिवहन, यातायात बढ़ा
फिर और बढ़ता गया ...
ये सिलसिला सालों-सदियों
यूँही चलता रहा ... चलता गया ...

फिर देश आज़ाद हुआ
नदी के इस तरफ
नदी के उस तरफ
एक नया
सियासी नक्शा तैयार हुआ

फिर जनता की मांग पर
उस पर एक पुल बना
पूरब से पश्चिम
या पश्चिम से पूरब
? … ! … ?
इस पर आज भी विवाद है
क्योंकि ये
दोनों तरफ के सियासतदारों  के
अपने-अपने दावों का सवाल है

फिर हर उस शहर में
एक ऐसा  ही पुल बना
जो उस नदी के
किनारे बसता था
पर उस हर शहर के
हर उस पुल का नाम हमेशा
सत्ता के गलियारों  में फँसता था

फिर और लोग बसते  गए  ...
...  और फिर कारख़ाने भी बढ़ते गए
फिर और लोग बसते गए  ...
...  और फिर घाट उजड़ते गए

फिर और ...
...  और फिर 
फिर और  ...
....  और फिर

सालों-साल बाद
जनता के बीच
ख़ुद-ब-ख़ुद बन गयी
एक सहमति आम
और हर शहर के
उस हर बेनाम पुल को
आख़िरकार
मिल ही गया एक नाम

'सूखी नदी का पुल'


माफ़ कीजिये!
मैं भूल गया
विषय पुल नहीं;
'नदी' था

देखो कैसे बातों-बातों में
हम भूल गए नदी को!

तो फिर  ...   मैं फिर से
वापस मुद्दे पर आता हूँ
और दो पंक्तियों में
उस नदी का इतिहास बताता हूँ

कभी एक नगरी उस नदी के किनारे रहती थी 
कभी एक नदी इस नगरी के किनारे बहती थी

जाते-जाते
अपने लिखने का मक़सद  बताता हूँ
क्योंकि मैं तो बस इतना चाहता हूँ
कि ...

नदी न बने कभी इतिहास का 'विषय'
नदी हमेशा 'भूगोल का ही विषय' रहे 

और जैसे
... सदियों से बह रही है
वैसे ही
सदियों तक बहती रहे ...


आपका
नीलेश जैन
मुम्बई









Tuesday, September 10, 2013

कुछ लोगों को मेरी ज़रुरत थी जो  हो सका…मैने उनके लिए किया… जिससे कि उन्हें सही रास्ता मिल सके सुकून  मिला और चैन भी
… 
बहुत दिनों बाद 
फिर से लगा 
किसी के उठते 
छप्पर में 
हाथ लगा आया 
मैं तीरथ कर आया !

दिल्ली में
बहती नहीं है गंगा
फिर भी 
गंगा नहा आया …
मैं तीरथ कर आया !!
मैं तीरथ कर आया !!! 

आप सबका
 नीलेश

Wednesday, July 3, 2013

कैसे उजाड़ दूं

कैसे 
उजाड़
दूं 

???

मैं 
उसका 
चमन 
... जिसकी 
जड़ों
में 
मेरे
बाग़ 
की 
मिट्टी है !

आपका नीलेश

! ? ! ? ! ?


चुरा 
के 
साबित
कर
दिया 
किसी 
ने
कि 
माल
क़ीमती   
था ....

आपका नीलेश

Tuesday, March 5, 2013

उस
नाकाम
के हाथों
होना
कोई
बड़ा
काम
लिखा था।

जिस
पत्थर को
बाँधकर की
उसने
दरिया में
ख़ुदकुशी,
.... उस पे
न जाने
किसने
 'राम' 
लिखा था .

आपका नीलेश, मुंबई