Monday, August 1, 2016

जब पहली अगस्त आती है,
पन्द्रह अगस्त की याद दिलाती है...
इस बार साथ ही कुछ और भी याद आया...



Monday, April 4, 2016


आज फिर किसी ने एक उलझन भरा प्रश्न पूछा। उसके लिए शायद नया था; लेकिन ज़माने के लिए नहीं। मानव में मानस के ऐसे तूफ़ान हमेशा आते रहते हैं... उस भौगोलिक-तथ्य की तरह, जो कहता है... धरती के नीचे भूकम्प हज़ारों बार घटित होते रहते हैं...  लेकिन कभी-कभी ही बाहरी परत तोड़ कर बाहर दिख पाते हैं। लेकिन कोई भी भूकम्प कितना भी बड़ा हो... कितना भी घातक हो... उसका मूल-केंद्र सूक्ष्म ही होता है ... मानस के भूकम्प की तरह... उस पर कुछ तो अपना बस होता ही है... उसे घटित होने से किसी हद तक तो रोका ही जा सकता है... बस इतना ही कहना है :


कहाँ पर पहुँच कर 
मिलेगा सुकून
उस हद की 
एक लकीर खींच लो
किसी के 
कामयाबी के आफ़ताब   से 
क्यों हो 
अपनी आखें बेरोशन
बेहतर है
उस तरफ से 
अपनी आँखें मींच लो

क्या मेरी काबिलियत 
और क्या मेरा हासिल
किसी और को 
कितना मिला 
और क्यों
ये मलाल छोड़ दो
तुलना की 
तुला तोड़ दो

पर 
बचा के रखना 
वो आईना
जिसमें 
आँखो-में-आँखें डाल कर
कभी रुसवा न होना पड़े 
खुद से ही पूछे हुए सवाल पर
कभी रुसवा न होना पड़े 
आँखो-में-आँखें डाल कर
खुद से ही पूछे हुए सवाल पर


- आपका नीलेश मुंबई