Friday, August 28, 2009

गंगा को पाना है ...तो गोमुख जाना ही होगा !

हम समझते हैं कि गंगा को हम हरिद्वार में पा सकते हैं ; प्रयाग की त्रिवेणी में या फिर उससे भी आगे ... गंगा यहाँ एक प्रतीक है - हमारे प्रयासों का। ये खोज - ये गवेषणा किसी की भी हो सकती है ... किसी के लिए भी हो सकती है। मूल बात ये है कि ऐसा समझना अपनी भूल है कि हम किसी को उसके मूल से दूर जाकर पा सकते हैं ... मेरी निगाह में यही 'मूल की भूल' है । इसके लिए ये अपरिहार्य है कि हम धारा के विरुद्ध जाना सीखें। ये कार्य आसान नहीं है ... पहले तो इसको समझना और फिर उस समझ को अमल में लाना क्योंकि ...

धारा के विरुद्ध ही 'तैरना' होता है;

धारा
के साथ तो 'बहना' होता है...

बह
तो निष्प्राण भी सकते हैं;

परन्तु
तैर सिर्फ़ चेतन ही सकते है !


आपका नीलेश

Tuesday, August 25, 2009

ईश्वर की उपस्थिति में भी महाभारत क्यों?

यदि ऊपरवाले को अंतत: सब कुछ सही ही करना होता है, तो फिर विपत्ति क्योंकर आती है? ये सवाल सब के मन में उठता रहा है। यदि पांडव जीतने ही थे और सब कुछ पूर्व विदित एवं निश्चित ही था... तो फिर महाभारत हुआ ही क्यों? यदि स्वयं कृष्ण वहां उपस्थित थे, तो फिर अर्जुन भटके कैसे ... असमंजस की स्थिति कैसे जन्मी ??? प्रश्न अनेक हैं परन्तु उत्तर एक है कि जब तक परिस्थितियां अपने चरम पर नहीं पहुँच जाती तब तक वो मनोस्थिति बन ही नहीं पाती है कि कोई किसी मूल बात को समझ सके। संभवत: जब भी परिस्थितियां प्रतिकूल बनती हैं तो उन्हें ईश्वरीय विधान मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए ... इस आशा के साथ कि अवश्य ही कुछ अमूल्य -- अभूतपूर्व घटित होने को है... कोई जीवनामृत इन विष-मयी परिस्थितियौं से ... इस गहन मंथन से जन्म लेने वाला है ... क्योंकि ...

द्वंद्व में ही गीता जन्मती है !

आपका neelesh

Monday, August 24, 2009

दुख का भविष्य; सुख के भविष्य से अधिक सुखकर होता है!

कुछ दिनों से कुछ लिख नहीं पाया क्योंकि जीवन के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा था । एक तरफ़ जीवन देने वाले का जीवन था, तो दूसरी तरफ़ ईश्वर पर विश्वास की दो तरफा परीक्षा चल रही थी । दो तरफा इसलिए क्योंकि मुझे परीक्षा देनी थी और किसी को अपना सनातन अस्तित्व सिद्ध करना था । आख़िर में दोनों ही सफल रहे। इस समयावधि में कई बार स्वयं को टूटने के कगार पर पाया ... पर हर बार स्वयं को समझाया कि समय अच्छा आएगा... ये तो परिवर्तन का नियम है ...क्योंकि

परिवर्तन ही स्थायी है;शेष तो परिवर्तनशील होता है!

आपका नीलेश
२४-०८-०९

Monday, August 10, 2009

एक के प्रति अग्र होना ही ,'एकाग्र' होना है !

सृजनात्मक व्यक्तित्व अक्सर ये अनुभूत करते हैं कि उनकी एकाग्रता का स्तर अपेक्षित स्तर से कम है । वे इसे सृजन के मार्ग में बाधा भी मान लेते हैं। जिसे हम एकाग्रता की न्यूनता मानते हैं, दरअसल वो ही इस ओर एक इशारा है कि हम कुछ नया -- नवीन -- नूतन प्रस्तुत करने जा रहे हैं; चूंकि वो अदृश्य -- अभूतपूर्व निर्माण होता है, इसीलिए वो स्पष्ट नहीं होता है ... और हमे लगता है कि हम एकाग्रता के अभाव में उसे देख नही पा रहे हैं... वो हमे अप्राप्य हैइसीलिए देखा जाए तो एकाग्रता की अपेक्षा इतनी ही होती है कि जब आप कोई कार्य करें तो अपनी समस्त समर्थता का उसमें सम्पूर्ण निवेश कर दें । सत्य तो ये है कि प्रश्न एकाग्रता की कमी का नहीं हैं क्योंकि यदि कोई; कुछ; कैसा भी पूर्व निर्धारित होगा तभी तो ये सम्भव है कि हम उसके प्रति एकाग्र हो पाएं । पूर्व निर्धारित होना तो सृजनात्मक प्रक्रिया में सम्भव नहीं है क्योंकि :

सृजन के प्रमाण नहीं होते !

नीलेश
मुंबई

... क्या हम आज से पहले भी थे ! ? !

कभी हमें लगता है कि हम आज से पहले भी थे...ज़िन्दगी में कई अघटित बातें भी जानी-पहचानी सी लगती हैं ... कभी कोई अनजाना चेहरा ... कभी कोई जगह ... सब कुछ जैसे कुछ याद दिलाता है । फिर एक अजब सी बेचैनी हमें झकझोरने लगती है । स्वयं पर ही प्रश्न उठने लगते हैं ... हम उठाने लगते हैं ... पर किसके पास है इसका उत्तर! सिर्फ़ वही इसे स्वीकार कर सकते हैं, जो 'आत्मा' में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि आत्मा सभी में होती है । जब हम उसके प्रति चेतन हो जाते हैं; तो वो हमारी मार्ग दर्शक बन जाती है, ऐसे व्यक्ति ही 'आत्म चेतन स्वरुप ' होते हैं । तब सद् विचारों को व्यक्ति स्वयं ही पाने लगता है चूंकि ये उस अंतरात्मा की आवाज़ होती है, जो कभी ग़लत मार्ग नहीं दिखाती । ये चेतना की प्रथम अवस्था होती है... जिसमें हम स्वयं को पहचानना सीखते हैं। इसे ही संभवत: 'आत्म साक्षात्कार' की अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में बेचैनी होती है, हम अपने पूर्व जीवन के बारें में जानना चाहते हैं । मान लो हम जान भी जाएँ तो पश्चगमन तो सम्भव नहीं ही है अतः ये स्वीकार कर लेना ही सर्वोचित होगा कि हम एक ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गयें है ... जिसमें हमारे पदचिह्न शेष नहीं रहते; रहतें हैं तो सिर्फ़ आगामी मार्ग ... ऐसे मार्ग जिनसे हम उससे ऊपर के चरण में प्रवेश करते हैं ... आत्मा से महात्मा बनने के चरण में। मेरा मानना ये है कि 'महान' वो है जो समकालीन युग की अपेक्षा की पूर्ति करता है; और 'महात्मा' वो है जो सर्वार्थ हेतु युगों से परे -- युगातीत प्रयास करता है और लोगों को आत्मिक विकास के सूत्र प्रदान करता है। इससे परे भी एक परम अवस्था है -- परमात्मा की अवस्था । यहाँ अभी तक के लिए ये प्रश्न उठाना पर्याप्त होगा कि :

यदि महात्मा अपने में पूर्ण होते हैं;
तो
फिर परमात्मा क्या और क्यों ?

आपका नीलेश
मुंबई

Friday, August 7, 2009

परिभाषा नहीं जानता; परन्तु परिभाषित कर रहा हूँ!

'अपरिग्रह' को आज के सन्दर्भ में कैसे समझ सकते हैं ?
संभवत: इस प्रश्न के प्रश्नकर्ता की अपेक्षा शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं है । शास्त्रीय परिभाषा तो जानना मैं भी नहीं चाहता; परन्तु नये रूप में परिभाषित कर रहा हूँ, इस आशा के साथ कि शायद इस रूप में ये अधिक जीवनोपयोगी हो सके । इस तरह के प्रश्न नवीन सहज एवं सुबोध रूप में ही समझाये जाने की युगीन अपेक्षा रखते है ।
आओ अब समझें ... 'ग्रह' को केन्द्र भी कह सकते हैं; क्योंकि ये गोल होता है और 'परि' को परिधि का संक्षिप्त रूप मान लें । तो बात ये समझ में आ सकती है कि जब हम स्वयं को ही केन्द्र मानकर परिधि खींचना शुरू कर देते हैं, तो हम 'परिग्रही' हो जाते हैं ...तब हम स्वयं से परे नहीं सोच पाते, तब वो परिधि हमे सीमित कर देती है ... अपने तक समेट देती है ... ऐसे में हम स्वार्थी हो जाते हैं ... और तब हम सब अपने लिए ही संचित कर लेना चाहते हैं... संचित करने के प्रयास में हम संकुचित एवं संकीर्ण हो जाते हैं । इससे हम दूसरों को उनके अधिकार से वंचित कर देते हैं और स्वयं के विकास की संभावनाओं को भी संकीर्ण कर देते हैं । इसीलिए यदि हम 'अपरिग्रही' हो जाएँ ... तो हम-सबका विकास सुनिश्चित हो सकता है । इसीलिए ...

ग़लत अपने को केन्द्र मानना नहीं है ...
ग़लत तो है अपने को ही केन्द्र मानकर परिधि खींच लेना


आपका नीलेश
मुंबई

Wednesday, August 5, 2009

ज़िन्दगी का सच्चा सरमाया ...पूँजी क्या है ?

ये बात सब जानते हैं कि साथ कुछ नहीं जाता ... पर फिर भी हम सब परेशां रहते हैं । सच है कमाना जीने के लिए ज़रूरी है ... पर ऐसा कमाने में क्या फायदा जिसमें हम, वो सब कुछ खो दें... जो हमारे होने का सबब है । इसीलिये ये सिद्धांत अपनाना ही होगा कि 'धन हो बंधन नहीं' ... तब कमाई साधन बन जायेगी साध्य नहीं । इसलिए कुछ ऐसा भी कमाना होगा, जो जीवन की सबसे बड़ी पूँजी बन जाए ... ज़िन्दगी का सरमाया बन जाए ... और जो तब भी रहे, जब हम न हों ... और जो बँटवारे में भी बांटा न जा सके ... इसलिए आज :

कमाओ...
तो
कमाओ !
वो 'चार काँधे'
जिन्हें
तुम्हें उठाने का
अफ़सोस हो !
.... और जिनके
कांधों पर
तुम्हारा
जनाज़ा
बोझ हो !
!
आपका नीलेश
मुंबई

Monday, August 3, 2009

हम सब जानते हैं ...सिवाय

एक दिन एक जानने वाले का ख़त आया कि मैं आपके शहर में कुछ दिनों के लिए आ रहा हूँ ... आप मुझे किस अच्छे प्रवास स्थल के बारें में सूचित कर दें। मैंने सोचा ... मैं तो हमेशा इस शहर में अपने घर में ही रहा हूँ, तो फिर मैं कैसे जान सकता हूँ कि कौन सा प्रवास स्थल अच्छा है । जब इस पर गहन विचार किया तो लगा कि ये साधारण-सी बात अपने आप में कितना बड़ा फ़लसफा हो सकती है । बहुत बार हम ऐसी ही परिस्थितियौं में होते हैं, जब हम सब कुछ जानने का थोथा दावा तो करते हैं, पर उसी को नहीं जानते जो हमारे निकटस्थ होता है । ये हम स्वयं भी हो सकते हैं । इसीलिए शायद हमें और किसी की भी आवश्यकता पड़ती है, जो हमारे बारे में हमे बता सके । ये आँख बाहरी भी हो सकती है ... और हो सकता है कि हम स्वयं से ही निरपेक्ष होकर अपने को ही देखना सीख जाएँ ... परन्तु जब तलक ऐसा विकसित न हो जाए ... तब तक बाहर से ही अपने बारें में राय लेते रहिये ... ये बेहद जरूरी है, हम सब के लिए... क्योंकि ...

दुनिया से वाकिफ लोग
ख़ुद को कहाँ जानते हैं;
शहर की सरायों का हाल
मुसाफिर बेहतर जानते हैं


आपका नीलेश
Mumbai

'ध्यान' क्या है ?... क्या है 'ध्यान' ?!?... है क्या 'ध्यान' !!!

ये प्रश्न कोई नया नहीं है ... और मेरे लिए तो कदापि नहीं क्योंकि मैं अक्सर स्वयं से ये सवाल करता रहा हूँ। मैं कोई ज्ञाता नहीं पर मुझे लगता है कि लोग अक्सर शाब्दिक मौन को 'ध्यान' समझ लेते हैं; परन्तु अगर यही 'ध्यान' है तो यह कितना सतही और तर्कहीन होगा । इस परिस्थिति में तो जो कोई भी मूक होगा वो ध्यानस्थ मान लिया जाएगा, पर क्या यह उचित होगा? हाँ ये स्वीकार किया जा सकता है कि 'मानसिक मौन' ही ध्यान हो सकता है। ये वो अवस्था होगी जिसमें मानस शून्य-सा हो जाए ... विचार शून्य-सा। अगर ऐसा हुआ तो फिर इस निर्विचारावस्था से लाभ क्या? फिर लगता है कि अपने सन्निकट वातावरण से पूर्ण रूप से कट जाना ही ध्यानस्थ होना होता होगा ... पर ये तो बेहोशी हुई ! ऐसा लगता है कि जिस क्षण में जो मानस में केंद्रित है और जो उस क्षण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं अपेक्षित है ... उस के मूल तक पहुँच जाना ही 'ध्यान' का लक्ष्य होता है ...' ध्यान' होता है । संभवत: इसीलिए हमे सदैव - प्रतिदिन 'ध्यान' की आवश्यकता पड़ती है। मैं ये जानकर कभी भी प्रभावित नहीं होता कि वो इसलिए महान है कि उसने इतना लंबा तप किया ...ऐसे में मुझे लगता है कि समयावधि का दीर्घ होना उस केन्द्र तक पहुचने के लिए लिया गया वो समय है जो एकाग्रता की कमी से जन्मा क्योंकि सत्य तो ये है कि हम तप तो उस क्षण के लिए ही करते हैं जिस क्षण में विवेचित विषय फलीभूत हो जाए.... इसीलिए आज तक की जितनी समझ है ... उसके अनुपात में इतना ही :

तप के युग होते हैं; पर बोध का
क्षण !

आपका नीलेश
मुंबई