Saturday, March 10, 2012

जो
'गुज़र गया'
वो
'अच्छा था
....
आदमी
या
वक़्त

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आपका नीलेश

Monday, March 5, 2012

एक और याद

तब
चार आने की आती थी
छोटी वाली ...
हरी, नीली और मटमैली लाल
वैसे बड़ी भी आती थी
आठ आने की
पर अपना काम
छोटी से ही चल जाता था
पापा की दाढ़ी के ब्लेड से
लगाते थे चीरा
उस 'रबड़ की गेंद' में
और फिर
थोडा दबा के...
पिचका के
उसके अन्दर
मोड़कर रख देते थे
अपने प्यार की चिट्ठी
और फ़ेंक देते थे
जान बूझकर खुली छोड़ी गयी
उसकी खिड़की के अन्दर...
तब कहाँ होते थे एस.एम.एस!
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आपका और उसका भी
नीलेश