यह जरूरी नहीं कि गुरु सबको मिल सके मगर उसकी तलाश जरूरी है फिर वह चाहे पत्थर की मूरत में ही क्यों न हो ...जो बोल तो नहीं सकती पर इसका एहसास तो कराती है कि कोई हमसे श्रेष्ठ है। इसीलिए कुछ पंक्तिया गुरु के नाम :
तुम्हारी सान* पर मिल सके मुझको धार
इसलिए मुझे अपना लोहा भूलना ही होगा!
और कलयुग के इस एकलव्य को भी
एक द्रोण ढूंढ़ना ही होगा !!
(सान* = वह पत्थर जिस पर धार तेज़ की जाती है )
आपका अपना
नीलेश, मुंबई
१३/०७/०९