परम शक्ति के अतिरिक्त किसी भी अन्य को लक्षित करना ही दुख एवं अवसाद का मूल कारण बनता है. मूल के अभाव में मूल का भाव कैसे जन्म लेगा. उसके अतिरिक्त यदि कहीं, कुछ और लक्षित किया भी जाता है और उससे कहीं, कुछ सुख या आनंद प्राप्त भी होता है; तो वह क्षणिक ही होता है. यदि इस बात पर विश्वास न हो तो उस अंतिम क्षण को स्मृत करो जब तुम्हें आनंद की प्राप्ति हुई थी... यदि तुम्हे वह क्षण स्मृत करना पड़ रहा है... तो समझ लो वो विस्मृत हुआ था ... और जो विस्मृत हो गया वह स्थायी कैसे हो सकता है. दरअसल वो आनंद था; परमानंद नहीं. और जो परम नहीं, वो चरम नहीं. और जो चरम नहीं वो पूर्ण नहीं, और जो पूर्ण नहीं वो अपूर्ण है. और जो अपूर्ण है, वह पूर्ण की आशा में व्यथित रहेगा, असंतोष से ग्रसित रहेगा तब तक उसकी यात्रा आत्यांतिक लक्ष्य की ओर ही निरंतर गमन करती रहेगी... नित्य-शांति का सनातन मानसरोवर कैसे पाएगी?!?
एक शब्द है 'प्रणिधान' जिसका मूल संदेश होता है: अपने समस्त कर्म एवं फल को ईश्वर को समर्पित कर दो. कर दो तो मतलब कर दो. अनासक्त हो जाओ. वीतरागी हो जाओ. इसे त्याग मत समझ लेना. क्योंकि त्याग वही करेगा जिसे लगेगा कि उसने कुछ प्राप्त किया है. प्राप्ति का भाव बड़ा व्यक्तिगत होता है. व्यक्तिगत होना ही तो समस्या की जड़ है. जहाँ खुद को केन्द्र में ले आए तो हर लाभ-हानि का केन्द्र खुद बन गये. तब हर अवस्था के लिए तैयार रहो. अपने को जड़ मानोगे तो तने से लेकर शाखा तक का कर्तव्य एवं भार का संवाह्न करना ही पड़ेगा. फल आए या न आए मौसम की मार सहनी ही पड़ेगी.
यदि 'प्रणिधान' का भाव रहा तो हम-अहम् का भाव शून्य हो जायेगा. और शून्य तब ही अर्थवान होता है जब किसी के पश्च हो नाकि पूर्व. ऐसा होने से कोई परम प्रथम होगा, प्राथमिक होगा. इस अवस्था में हम परिधि पर होंगे, फलाभाव का केंद्र नहीं, तब फल का फल न तो प्राप्ति की प्रसन्नता से चमत्कृत कर पाएगा और न अप्राप्ति की विपन्नता से विचलित या व्यथित .... तब नित्य-सुख का सनातन सरोवर सम्मुख होगा.
अापका नीलेश