Thursday, October 29, 2009

कुदरत भी एक किताब है !

कहते हैं कि बनानेवाले ने कुछ भी बे-वज़ह नहीं बनाया। अगर ऐसा है तो फिर क्यों न एक आदत डाली जाए ... इस पूरी कायनात को - इस कुदरत को एक किताब मान लिया जाए और फिर उसके गहरे मायनों को खोजा जाए ... इसी तलाश में लगा कि बनानेवाले ने इस ज़मी की 'ज़मी' को भी अज़ब बनाया है ...जो कभी साथ नहीं हो सकते उन्हें एक साथ रखा है - पानी और आग को ! ... तो क्या ये उसका अपना कोई तरीका है इंसान तक अपना फलसफा पहुंचाने का ...यही सोचते-सोचते ये ख्याल आया :

इस ज़मी में छुपा एक फलसफा यूँ तो साफ़ भी है ...

पर दिखेगा उसको ही जिसके पास 'वो आँख' भी है ...

जिसमें इस बेपनाह गहराई में जाने की पाँख भी है ...

कि जिस ज़मी के अन्दर आब* है उसी में आग भी है ...

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* पानी

आपका नीलेश

मुंबई

Tuesday, October 27, 2009

आज के लिए कुछ ख़ास !

बेचैनी की
अजब-सी लगी है आग
उसको बुझाइए ....

एक कतरा
सुकूं के समंदर से
लेके आइए...

जो है, जितना है
उतना
बहुत है
ये जज़्बा जगाइए...

खुशी कभी ख़ुद से बाहर नहीं
ये सोच कर ढूँढिये
और ख़ुद में पाइए ...

बाकी सब है दुनियावी
पर ये रूहानी बात है
इसमें दलील को
इतना लगाइए ...

ये परखा हुआ नुस्खा है
फकीरों का
आप भी जरा
इसको आजमाइए !


आपका नीलेश
मुंबई

Saturday, October 24, 2009

विगत के प्रति कृतज्ञ होना सीखो!

आज एक समस्या है ... है भी या नहीं ... या फिर एक नकारात्मक अनुमान मात्र है ... ये निर्भर करता है सबके अपने-अपने सामाजिक अनुभव या निजी अनुभूति पर - और वो समस्या यह है कि आज की पीढ़ी विगत को महत्व नहीं देती ... या देना नहीं चाहती ... वो आज की उपलब्धि के लिए विगत पीढ़ी को वर्तमान की 'वर्तमान' परिस्थिति के लिए कोई भी; कितना भी या फिर कुछ भी महत्व नहीं देना चाहती। इसके पीछे मूल भाव ये सक्रिय दीखता है कि आज की पीढ़ी की दृष्टि में ...जो गत युग बीता है वो पुरातन था ... आधुनिकता से रीता था । तकनीकी तो थी परन्तु प्रौद्यागिकी नहीं। प्रौद्यागिकी आज मनुष्य-को-मनुष्य से जोड़ तो रही है परन्तु संबंधों का ये नवीन समाजशास्त्र संचार की उपयोगिता को 'कार्य सिद्धि के साधन मात्र' रूप में ही देखता है; मानवीय सद्-भावना के सेतु के रूप में नहीं। इसीलिए प्रौद्यागिकी ने उन लोगों को तो पास लाया जो दूर थे; पर वो दूर होने लगे जो पास थे। हमने दूरस्थ से तो संवाद साधना सीख लिया परन्तु निकटस्थ से नहीं। यहीं नयी पीढ़ी में एहसास-ए -बेहतरी का निरर्थक भाव जागा ... उन्हें लगा कि विगत पीढ़ी नयी सीख के लिए हम पर नितांत निर्भर है ... हमे विज्ञानं का अधिक उपयोग आता है... यहीं उनसे मूल की भूल हुयी ... वे भूल गए कि आज जिस का प्रयोग कर वो अपने को आधुनिक और प्रगतिशील मान रहे हैं, उसकी नींव में यही विगत पीढ़ी है। इसीलिए उन्हें विगत के प्रति कृतज्ञ होना सीखना होगा और साथ ही यह भी समझना होगा कि :

'कंप्यूटर तक हम बिना कंप्यूटर के ही पहुंचे हैं। '

आपका नीलेश
मुंबई

Tuesday, October 20, 2009

दीपावली के निहितार्थ

दीपावली अर्थात् दीपों की अवली ... एक दीप नहीं अनेक दीपों का एक पंक्तिबद्ध होना ... एक साथ जगमग होना। ये एक संदेश है, उस देश को जहाँ यदि अपने आप में 'एक दीप' होने का भी प्रबुद्ध-संदेश दिया गया तो साथ ही सबके साथ होने का भी। इन अर्थों में यह पर्व भारत की सामासिक संस्कृति का प्रतीक पर्व भी बन जाता है।
लक्ष्य के प्रतीक के रूप में 'लक्ष्मी' की पूजा-अर्चना का विधान किया गया तो ईश के गण के रूप में - मुखिया के रूप में 'गणेश' का भी अर्थात् लक्ष्य को लक्षित करो और साथ ही जो सर्वप्रमुख है - मुख्य है, उसे सदैव प्राथमिकता दो ।
शुभ-लाभ भी कहा गया अर्थात यह शुद्ध भाव भी रखा गया कि लाभ तो हो परन्तु हो शुभ। यूँ तो लाभ को सदैव दूसरे की हानि के रूप में ही देखा जाता है परन्तु 'शुभ-लाभ' की संकल्पना का निहितार्थ है ...यथोचित लाभ ... उतना लाभ जितना जीवनोपार्जन के लिए - जीवकोपार्जन के लिए उचित हो ... जो सम्पोषणीय हो ... सेवा अथवा वस्तु की उपलब्धता हेतु - सेवार्थ आवश्यक हो; किसी की मजबूरी अथवा विवशता के नाम पर जो शोषणकारी न हो।
स्वच्छता को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम माना गया ... समस्त आंतरिक मलिनता को साफ़ किए बगैर लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है ... यहाँ मार्ग की शुद्धता का चिरंतन मूल्य भी सुनिश्चित किया गया ... सच है जब तक अंत:गृह में निरर्थक की उपस्थिति रहेगी तो सार्थक के लिए स्थान ही कहाँ उपलब्ध हो सकेगा!
इसे 'नव वर्ष' भी माना गया ... परन्तु यह उसी के लिए नव वर्ष है जिसने इन निहितार्थों को समझ लिया ...

आपके जीवन में भी
एक ऐसी दीपावली आए ...
एकमत सब दीप जलें
और नव वर्ष हर्षाए
!!!

आपका नीलेश

Wednesday, October 7, 2009

हद की सरहद से निकलना ही होगा....

अब हर हद की सरहद से निकलना ही होगा
मैं जानता हूँ हर हाल में मुझे चलना ही होगा

माना अब कोई नाखुदा नहीं
फिर भी अभी वो जुदा नहीं
ये एहसास दिल से आज भी करना ही होगा
मैं जानता हूँ हर हाल में मुझे चलना ही होगा

माना अब नहीं कोई आईना
मेरी सूरत के लिए
फिर भी मुझे औरौं के लिए सँवरना ही होगा
मैं जानता हूँ हर हाल में मुझे चलना ही होगा

माना अब कोई तराजू नहीं
मेरे ईमान की खातिर
फिर भी अपने ज़मीर के लिए तुलना ही होगा
मैं जानता हूँ हर हाल में मुझे चलना ही होगा

आपका नीलेश