इससे फर्क तो पड़ता ही है कि किसकी जड़ों को जमने के लिए कितनी मिट्टी मिली है और कितना फैलाव। सच तो ये है कि जड़ों की गहराई जितनी गहरायेगी ... ऊँचाई उतनी ही ऊँचान पायेगी! इसीलिए जरूरी है कि हम अपनी गहराई बढाएं और फैलाव भी ... कभी समझ की; तो कभी नज़रिये की। ये भी सच है कि हम सबको पनपने के लिए न तो एक जैसा वातावरण मिलता है और न ही अवसर। इसीलिए ये भेद तो स्वाभाविक है; लेकिन ये अस्वाभविक है कि हम इस भेद को शून्य करने के लिए प्रयास न करें। कोई बात नहीं कि हमारे बीते हुए कल ने हमें क्या दिया पर आज अगर हमारा विवेक सच में विवेकशील है, तो हम विस्तार को ही चुनेंगे और आने वाले कल के लिए ये संकल्प लेंगे कि हम अपने दायरों के दायरे तक सीमित नहीं रहेंगें ... सोच को नया आकाश देंगें... और विचार को नया सागर ।आपका नीलेश मुंबई
हम जो साकार करते हैं, अक्सर उसे ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान बैठते हैं । इसी से हमारे अन्दर अहम् जन्म लेता है और हम उस अहम् के दायरे में सिमट कर रह जाते हैं। देने वाले ने हमें असीम संभावनाएं दी हैं... हम उन्हें खोजें और पाएं ...और कभी न भूलें किहम सिर्फ घड़े बना सकते हैं; मिट्टी नहीं।