सुनने में ये कुछ अजीब सा लग रहा है ...पर थोड़े गहरे उतरना होगा...क्योंकि जो जितने गहरे उतरता है...वो उतनी ही गहरी बात पकड़ पाता है। ये बात भी ऐसी ही है, सतह पर तो कुछ हासिल नहीं हो पायेगा। समझ लो ये बात कुदरत का एक सबक है। समझो तो बाढ़ है क्या...एक तरफ़ जिसके होने से जो है, उसका अतिरेक और एक तरफ़ मर्यादा के तटों का अपना वजूद खो देना। इंसानी ज़िन्दगी में भी तो ऐसा ही होता है। जहाँ कभी, कुछ अपनी समेटने की शक्ति से अधिक मिला वहीं वो बिखरने के कगार पर पहुँचा और अगर संभले नहीं तो ... वहीं टूटे सारे बाँध और जहाँ टूटे बाँध वहां आया जलजला ...फिर सब मिटने लगता है जो भी उसके संपर्क में आया ...पर और गहरे उतरें तो एक बात और समझ में आती है ...सब बह जाता है पर नदी अपने को बचाए हुए बहती रहती है। इस तरह 'बाढ़ प्रकृति का एक अजब पाठ है...एक तरफ़ वो दिखाती है सीमाओं में न रहने का नकरात्मक परिणाम और दूसरी तरफ़ देती है एक सकरात्मक संदेश कि जो अपने चरम पर भी समान रूप से निरंतर रहता है वही अपने मूल स्वरुप को समस्त विरोधात्मक परिस्थितियौं में बचा पाता है। अगर ये बात अभी भी अटपटी लगे तो एक बात सोचना और सोचते रहना कि
... बाढ़ के आने में नदी का क्या दोष ?
नीलेश जैन,
मुंबई