ये उन सब के लिए एक साथ -- जो अक्सर पूछते हैं कि क्या कभी कुछ ऐसा भी लिखा जा सकता है ...जो लोगों को अच्छा भी लगे और सच्चा भी । ...ऐसे प्रश्नों में कभी प्रश्न चिन्ह (?) लगा होता है; तो कभी विस्मयबोधक (!) ...दोनों ही परिस्थितियौं में मुझे एक ही युक्ति दीखती है :
एक दिन अपने सामने
साफ़–सा एक आइना रखना
फिर उसके अक्स पर कुछ लिखना
कोई ऐसी बात
तुम उसमें कहना
जिसमें सिर्फ़ तुम रहना
अपने हर जज़्बात के साथ
सब उजले - मैले ख्वाब के साथ
छू लेने वाले एहसास के साथ
पर जब भी धूमिल हो जाए …
लिखने में ख़ुद का दिखना
तब कभी नहीं ; तुम कुछ भी लिखना
क्योंकि बेहद ज़रूरी है
अपने लिखे में दिखते रहना
और ख़ुद को देखते हुए लिखते रहना...
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तब ही ख़ुद को अच्छा लगेगा और दुनिया को सच्चा लगेगा . … शुभ सृजन ... रहे अनंत !!…
नीलेश जैन ,
मुंबई
२७-०७-२००९