Monday, August 10, 2009

... क्या हम आज से पहले भी थे ! ? !

कभी हमें लगता है कि हम आज से पहले भी थे...ज़िन्दगी में कई अघटित बातें भी जानी-पहचानी सी लगती हैं ... कभी कोई अनजाना चेहरा ... कभी कोई जगह ... सब कुछ जैसे कुछ याद दिलाता है । फिर एक अजब सी बेचैनी हमें झकझोरने लगती है । स्वयं पर ही प्रश्न उठने लगते हैं ... हम उठाने लगते हैं ... पर किसके पास है इसका उत्तर! सिर्फ़ वही इसे स्वीकार कर सकते हैं, जो 'आत्मा' में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि आत्मा सभी में होती है । जब हम उसके प्रति चेतन हो जाते हैं; तो वो हमारी मार्ग दर्शक बन जाती है, ऐसे व्यक्ति ही 'आत्म चेतन स्वरुप ' होते हैं । तब सद् विचारों को व्यक्ति स्वयं ही पाने लगता है चूंकि ये उस अंतरात्मा की आवाज़ होती है, जो कभी ग़लत मार्ग नहीं दिखाती । ये चेतना की प्रथम अवस्था होती है... जिसमें हम स्वयं को पहचानना सीखते हैं। इसे ही संभवत: 'आत्म साक्षात्कार' की अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में बेचैनी होती है, हम अपने पूर्व जीवन के बारें में जानना चाहते हैं । मान लो हम जान भी जाएँ तो पश्चगमन तो सम्भव नहीं ही है अतः ये स्वीकार कर लेना ही सर्वोचित होगा कि हम एक ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गयें है ... जिसमें हमारे पदचिह्न शेष नहीं रहते; रहतें हैं तो सिर्फ़ आगामी मार्ग ... ऐसे मार्ग जिनसे हम उससे ऊपर के चरण में प्रवेश करते हैं ... आत्मा से महात्मा बनने के चरण में। मेरा मानना ये है कि 'महान' वो है जो समकालीन युग की अपेक्षा की पूर्ति करता है; और 'महात्मा' वो है जो सर्वार्थ हेतु युगों से परे -- युगातीत प्रयास करता है और लोगों को आत्मिक विकास के सूत्र प्रदान करता है। इससे परे भी एक परम अवस्था है -- परमात्मा की अवस्था । यहाँ अभी तक के लिए ये प्रश्न उठाना पर्याप्त होगा कि :

यदि महात्मा अपने में पूर्ण होते हैं;
तो
फिर परमात्मा क्या और क्यों ?

आपका नीलेश
मुंबई