इच्छा का त्याग महात्माओं के लिए तो सार्थक हो सकता है; परन्तु सामान्य मानव के लिए संभवतः यह संभव नहीं।
हम जैसे सामान्य लोगों के लिए ये चरम अवस्था सामान्य जीवन के मध्यकाल में संभव नहीं हो पाती कभी व्यक्तिगत उपलब्धि की इच्छा से अथवा पारिवारिक-सामाजिक अपेक्षा से। इसीलिए इसे यूँ स्वीकार करना चाहिए कि हमें उस परम सन्देश को समझने के लिए प्रबुद्ध होना पड़ेगा और परम-इच्छा को जीवन में एक सोदेश्यपूर्ण लक्ष्य मानकर चरणबद्ध प्रयास करना ही होगा।
... और साथ ही यह भी समझना होगा कि सामान्य जीवन काल में दुःख का कारण इच्छा नहीं वरन इच्छा की पूर्ति न होना है.
इसीलिए
अपरिहार्य है कि इच्छा संभाव्य हो ...सामर्थ्यानुकूल हो ...
इसीलिए कहा गया पहले सामर्थ्य अर्जित करो फिर इच्छा करो.
इसीलिए
यदि इच्छा 'पालो' तो प्रयास ऐसा हो कि उसे 'पा लो' अन्यथा वही दुःख का कारण है ... वही दुःख है ... वहीं दुःख है।
आपका नीलेश१७-०२-२००९