(*JAWA : AN INTERNATIONAL OLD BIKE BRAND)
मेरे पापा के पास एक ‘जावा’ थी
‘जो’ उनकी आँखों का तारा थी
मेरे पापा के पास एक ‘जावा’ थी
वो पापा की गलबहिया थी
बस कहने को दो-पहिया थी.
पापा की
शुरू-शुरू की जो कमाई थी
वो उसी से आई थी
शायद मम्मी के बाद
वो ही उनको भायी थी
शायद मम्मी के लाल जोड़े और
उसके सुर्ख रंग की गहराई में
उन्हें कोई एक-सी बात
नज़र आयी थी.
शायद विदेशी हुकूमत के बाद
वो पहली विदेशी चीज थी
जो उनकी ज़िन्दगी में आयी थी
और जिस देश से वो आयी थी
उस देश की स्पेलिंग
शायद वो
पहली और आखरी स्पेलिंग थी
जो उन्होंने हमें रटवायी थी
‘चेकस्लोवाकिया’
तब पता चला था
रटने के लिए
पहाड़े से भी कठिन
कोई चीज होती है …
तब पापा ने
एक तरकीब समझायी थी
जब कोई बड़ी मुश्किल हो तो
उसे छोटे-छोटे हिस्सों में बाँट दो
उसके पीछे की बात को
गहराई से समझो
छोटे हिस्सों में बँटी मुश्किल
छोटी लगेगी …
तब देखना कैसे बात बनेगी
फिर उन्होंने समझाया
दरअसल ‘चेकस्लोवाकिया’
एक नहीं दो नामों का मेल है
‘चेक’ और’ स्लोवाक’
दोनों को अलग करके याद रखो
फिर मिला दो, फिर देखना
कैसे काम बन जायेगा
और सच में ऐसा हुआ
तब क्या पता था
उनका वो सबक
आज भी काम आएगा…
रोज सुबह सेवकों की सेना
उस पर लगायी जाती थी
सूती धोती के कपडे से
वो चमकायी जाती थी
उसके लिए पहले एक
नयी धोती मंगायी जाती थी
धो के सुखाई जाती थी
दरअसल
मुलायम बनायी जाती थी
चाहते तो पुरानी धोती भी
इस काम में ला सकते थे
दो पैसे बचा सकते थे
पर याद है न
शुरू में ही क्या बताया था
‘वो’ उनकी आँखों का तारा थी
फिर उसके लिए
भला उतरन कैसे
काम में ला सकते थे
पापा हमेशा उस पर
बहुत हल्का हाथ लगवाते थे
जिससे कि कहीं
ओरिजिनल पॉलिश
खराब न हो जाए
हमेशा कहते थे, कहने को
नयी पॉलिश भी करवा सकते हैं
पर जब तक हो सके
ओरिजिनल को बचाना चाहिए
…
और कभी-कभी संडे-इतवार
खुद भी करके सिखलाते थे
और समझाते थे
आप जिसे प्यार करते हैं
अपना समझते हैं
उसके लिए कपड़ा हो या हाथ
कभी सख्त नहीं
हमेशा नरम लगाना चाहिए
और जैसे हीरे को तराशते हैं
वैसा सब्र होना चाहिए.
धुली-पुछी उनकी 'जावा'
कभी अपनी हेड लाइट को लेफ्ट
तो कभी राइट करके
स्टैंड पे पिछले पहिये पर टिकी
खड़ी होती थी
वैसे तो अक्सर उसकी हेड लाइट
हमेशा लेफ्ट की ओर होती थी
जैसे कि वो बड़े प्यार से
पापा के आने का
इंतज़ार कर रही हो
पर जब उसकी हेड लाइट
राइट की ओर होती थी
तो माँ पापा से कहती थीं
लगता है आज तुमसे रूठ गयी है
पापा बड़े प्यार से
उसको सहलाते थे
फिर उसकी पेट्रोल की टंकी जैसी
शेप की चाबी
निकाल कर कीहोल में घुमाते थे
फिर किक लगाते थे
उसकी आवाज़ से ही
उसकी तबीयत समझ जाते थे
हर लम्बे सफर पर निकलने से पहले
उसकी बंद टंकी
उसकी बंद टंकी
धीरे-धीरे हिलाते थे
आँखें बंद करके कान लगाते थे
और सच में कितना पेट्रोल अंदर है
आवाज़ से ही समझ जाते थे
शायद काम पे निकलने से पहले
कितनी दूर तक जाने की ताक़त है
इसका अंदाज़ लगाते थे
फिर हम सबको देख के
मुस्कुराते थे
फिर बड़ी ख़ामोशी से
दफ्तर की ओर निकल जाते थे
… और बिना कुछ कहे
न जाने क्या कह जाते थे.
छुट्टी के दिन
हमारा भी नंबर लगता था
उनके गुदगुदे पेट की गद्दी से
अपनी पीठ लगाकर
अपनी पीठ लगाकर
हम आधे गद्दी,
आधे टंकी पे बैठ जाते थे
और चमचमाते लेग गार्ड्स पर
अपने पैर टिकाते थे
और पापा के साथ-साथ
झूठ-मूठ हैंडल पकड़ के
हम भी गाड़ी चलाते थे
सच तो ये है कि
हमने हैंडल संभालना
गाड़ी संभालने से पहले सीखा
…
पर
सच में गाड़ी चलाने के चक्कर में
बड़े भइया अक्सर
उनके हत्थे चढ़ जाते थे
पर पापा कभी हाथ नहीं उठाते थे
बस आँख से काम चलाते थे
रेडियो की तरह प्यार से
उनका कान ऐंठते
और बताते थे
बात सिर्फ हाथ के हैंडल तक
या
पैर के ज़मीन तक
पहुँचने की नहीं होती
कि बस बैठ गए गाडी पे
और निकल पड़े
उसका वज़न सम्भालना भी
आना चाहिए
और ये समझ भी होनी चाहिए
कि
‘एक्सीडेंट’
हमेशा अपनी गलती से नहीं
दूसरे की गलती से भी होता है
इसलिए खुद के साथ
दूसरे से भी
होशियार रहना आना चाहिए
तभी
इन सब के लिए
हाथ आजमाना चाहिए.
पापा के हर ट्रांसफर में
टीन और एंगेल से बना
उसका शेड उखाड़ा जाता था
और सारा सामान चढ़ाने के बाद
उसको चढ़ाया जाता था
जो रोज़ नए सफर पे ले जाती थी
आज नयी मंज़िल की ओर
वो खुद अपने पहियों पे ठहरी
लेकिन फिर भी.…
चलती चली जाती थी
और किसी गइया के कंधे पे बैठी
चिड़िया जैसे इतराती थी.
…
…
…
ये सफर चलता रहा
ज़िन्दगी की तरह
कहीं आशियाना बनता रहा
कहीं आशियाना उखड़ता रहा
ये सफर चलता रहा...
…
…
…
पापा के ओहदे बढ़ने लगे
अब वो जीप से चलने लगे
हम सब बड़े हो गए
ज़माना बदलने लगा
अब भैया का दिल
नयी-नयी आयी
येज़दी के लिए मचलने लगा
बड़े शहरों में
घरों का दायरा घटने लगा
भैय्या की बात ने असर दिखाया
और मौका देखकर एक दिन
माँ ने पापा को समझाया
और बड़ी मुश्किल से
इस बात के लिए मनाया
कि अब खड़ी ‘जावा’ की जगह
नयी जो चल रही है
वो ‘येज़दी’ ले आते हैं
वैसे भी अब आप
कहाँ उससे चलते हैं
कहाँ उसको चलाते हैं
और
घर में दो-दो गाड़ियों के लिए
जगह भी कहाँ है.…
पापा ने माँ को देखा
फिर हिलते परदे के पीछे
वहां शायद भैया थे
फिर.…
पापा बिना कुछ कहे
छत पे चले गये
धीरे-धीरे
जैसे दो बार में एक सीढ़ी
चढ़ते हैं
पीछे-पीछे मैं भी
हमेशा की तरह
तेजी-तेजी
जैसे एक बार में दो सीढ़ी
चढ़ते हैं
पापा ने ऊपर से
कोने में खड़ी
अपनी ‘जावा’ को देखा
फिर शायद
धूल से जो कुछ
उनकी आँख में चला गया था
उसको पोछा
पलटे
सीढ़ियां उतरने से पहले
एक पल के लिए तो रुके
पर फिर
खुद को नहीं रोका
…
…
…
एकदिन ‘वो’ चली गयी
जैसे सब चले जाते हैं
…
…
…
मेरे पापा के पास एक ‘जावा’ थी
‘जो’ उनकी आँखों का तारा थी
…
…
…
आज बस उसकी
धुँधली-सी याद है
वो लाइट के ऊपर चूड़ी वाला कुछ
जिसे मैं
पापा की गाडी की बिंदी कहता था
और शायद गोले में लिखा
चार अक्षर का उसका नाम
और
वो साइड में उसकी तीन धारियां
पर मैं उसका नंबर भूल गया !
जाने वो कैसे भूल गया !!
क्यों भूल गया !!!
जबकि वही नंबर तो था
उसकी असली पहचान
एक बार पापा से पूछा भी था
पर शायद …
वो भी भूल गये थे
या फिर याद नहीं था
या फिर याद नहीं करना चाहते थे
उस दिन उन्होंने जो कहा था
उसमें से शायद
इतनी सी बात याद है
कि
क्या ऐसी बातों को
क्या ऐसी बातों को
दिल से लगाना
जिसको है जाना
क्या उसको याद रखना
क्या उससे दिल लगाना
ये तो सिलसिला है
एक का आना
एक का जाना
…
…
…
फिर
एक दिन
चली गयी
जीप भी
येज़दी भी
और
न जाने
क्या-क्या
…
…
…
अब तो
बहुत साल गुजर गये
पापा को भी गये !
- आपका नीलेश
मुंबई