आज एक समस्या है ... है भी या नहीं ... या फिर एक नकारात्मक अनुमान मात्र है ... ये निर्भर करता है सबके अपने-अपने सामाजिक अनुभव या निजी अनुभूति पर - और वो समस्या यह है कि आज की पीढ़ी विगत को महत्व नहीं देती ... या देना नहीं चाहती ... वो आज की उपलब्धि के लिए विगत पीढ़ी को वर्तमान की 'वर्तमान' परिस्थिति के लिए कोई भी; कितना भी या फिर कुछ भी महत्व नहीं देना चाहती। इसके पीछे मूल भाव ये सक्रिय दीखता है कि आज की पीढ़ी की दृष्टि में ...जो गत युग बीता है वो पुरातन था ... आधुनिकता से रीता था । तकनीकी तो थी परन्तु प्रौद्यागिकी नहीं। प्रौद्यागिकी आज मनुष्य-को-मनुष्य से जोड़ तो रही है परन्तु संबंधों का ये नवीन समाजशास्त्र संचार की उपयोगिता को 'कार्य सिद्धि के साधन मात्र' रूप में ही देखता है; मानवीय सद्-भावना के सेतु के रूप में नहीं। इसीलिए प्रौद्यागिकी ने उन लोगों को तो पास लाया जो दूर थे; पर वो दूर होने लगे जो पास थे। हमने दूरस्थ से तो संवाद साधना सीख लिया परन्तु निकटस्थ से नहीं। यहीं नयी पीढ़ी में एहसास-ए -बेहतरी का निरर्थक भाव जागा ... उन्हें लगा कि विगत पीढ़ी नयी सीख के लिए हम पर नितांत निर्भर है ... हमे विज्ञानं का अधिक उपयोग आता है... यहीं उनसे मूल की भूल हुयी ... वे भूल गए कि आज जिस का प्रयोग कर वो अपने को आधुनिक और प्रगतिशील मान रहे हैं, उसकी नींव में यही विगत पीढ़ी है। इसीलिए उन्हें विगत के प्रति कृतज्ञ होना सीखना होगा और साथ ही यह भी समझना होगा कि :
'कंप्यूटर तक हम बिना कंप्यूटर के ही पहुंचे हैं। '
आपका नीलेश
मुंबई