कई बार हम टूटने लगते हैं ... बिखरने के कगार पर आ खड़े होते हैं ... और कारण होता है, उन बे-वज़ह की बातों को जरूरत से ज़्यादा अहमियत दे देना, जो इसलिए अहम बन पड़ती हैं क्योँकि हमने उन्हें अहम मान लिया होता है। सच तो ये होता है कि हम मंजिल से निगाह हटा रहे होते हैं या उन मशवरों पर गौर करने लगते हैं जो गौर करने लायक नहीं होते या फिर उन उँगलियों को अपने ऊपर उठा मान कर ख़ुद को कमज़ोर समझने लगते हैं, जो कभी ख़ुद पर उठी हीं नहीं। ऐसे में एक सलाह है कि अगर ऐसा कुछ भी सफर के दरमियाँ आये ... तो उसे दरमियाँ ही छोड़ दें ...और बस मंजिल पर निगाह रखें और ख़ुद को समझाएं कि :
मेरी मंजिल रहे सलामत
मुझे रास्तों से क्या !
मेरा खुदा रहे सलामत,
मुझे मस्ज़िदों से क्या !!