Friday, July 31, 2009

दुनिया का ये अजब दस्तूर है ... अपनी आँख ही अपने से दूर है

जिंदगी में हम... जाने कौन-कौन से किरदार निभाते हैं। एक फनकार की तरह हमें हर नए किरदार के लिए एक नया रूप रचना होता है ... मुखौटे भी लगाने होते हैं ... लेकिन आज की जिंदगी में जो दोहरापन हम जीने को मजबूर हैं ... वो इन अस्थायी मुखौटों को इतना स्थायी बना देता है कि हम उस झूठे चेहरे को ही सच मान बैठते हैं ... और तब एक अजब-सी बेचैनी भी होती है...जब आइना सामने होता है ... आँख को आँख तो दिखती है पर असली चेहरा नहीं तब हम अपने को ख़ुद ही नहीं पहचान पाते हैंआज इसी पर कुछ...

आँखें जिस चेहरे पर हैं
उसे देखने को तरस गयीं
सूरतें इस कदर
मुखौटों से चिपक गयीं...


आपका नीलेश
मुंबई

Wednesday, July 29, 2009

आज आँख नम है....

आज आँख नम है ... किसी ने कुछ ऐसा लिख दिया ...उसने किस को पा कर हमेशा के लिए खो दिया ... आज वो अकेला है ... आगे का रास्ता, उसे आँख की नमी से धुंधलाता दिख रहा है ...वो मुझसे मंजिल मांग रहा है... सवाल उठा रहा है ...वो कहाँ चला गया ...क्यों चला गया ... और अब वो क्या करे ?...??...???
जो चला गया है ... वो आज भी तुम्हारे साथ है... तेरे वज़ूद में ही उसका वज़ूद है ... और सुन सको तो वो आज भी तुम्हें पुकार कर कह रहा है :

जिस्म का कोई वज़ूद
साँसों का कोई सिलसिला
शर्त कुछ भी .. कोई भी ज़िन्दगी की
कुछ भी ज़रूरी नहीं है मेरे के होने के लिए
तुम हो ... तुम हो ... तुम हो ... तुम तो हो ...
ये बहुत है ... बहुत है... बहुत है मेरे होने के लिए ...!!!


आज सिर्फ़ इतना ही कह पाऊँगा।
आपका नीलेश,
मुंबई।

Monday, July 27, 2009

बाढ़ के आने से नदी नहीं बह जाती

सुनने में ये कुछ अजीब सा लग रहा है ...पर थोड़े गहरे उतरना होगा...क्योंकि जो जितने गहरे उतरता है...वो उतनी ही गहरी बात पकड़ पाता है। ये बात भी ऐसी ही है, सतह पर तो कुछ हासिल नहीं हो पायेगा। समझ लो ये बात कुदरत का एक सबक है। समझो तो बाढ़ है क्या...एक तरफ़ जिसके होने से जो है, उसका अतिरेक और एक तरफ़ मर्यादा के तटों का अपना वजूद खो देना। इंसानी ज़िन्दगी में भी तो ऐसा ही होता है। जहाँ कभी, कुछ अपनी समेटने की शक्ति से अधिक मिला वहीं वो बिखरने के कगार पर पहुँचा और अगर संभले नहीं तो ... वहीं टूटे सारे बाँध और जहाँ टूटे बाँध वहां आया जलजला ...फिर सब मिटने लगता है जो भी उसके संपर्क में आया ...पर और गहरे उतरें तो एक बात और समझ में आती है ...सब बह जाता है पर नदी अपने को बचाए हुए बहती रहती है। इस तरह 'बाढ़ प्रकृति का एक अजब पाठ है...एक तरफ़ वो दिखाती है सीमाओं में न रहने का नकरात्मक परिणाम और दूसरी तरफ़ देती है एक सकरात्मक संदेश कि जो अपने चरम पर भी समान रूप से निरंतर रहता है वही अपने मूल स्वरुप को समस्त विरोधात्मक परिस्थितियौं में बचा पाता है। अगर ये बात अभी भी अटपटी लगे तो एक बात सोचना और सोचते रहना कि

... बाढ़ के आने में नदी का क्या दोष ?


नीलेश जैन,
मुंबई

लिखो तो कुछ ऐसा लिखना ...

ये उन सब के लिए एक साथ -- जो अक्सर पूछते हैं कि क्या कभी कुछ ऐसा भी लिखा जा सकता है ...जो लोगों को अच्छा भी लगे और सच्चा भी । ...ऐसे प्रश्नों में कभी प्रश्न चिन्ह (?) लगा होता है; तो कभी विस्मयबोधक (!) ...दोनों ही परिस्थितियौं में मुझे एक ही युक्ति दीखती है :

एक दिन अपने सामने
साफ़
सा एक आइना रखना
फिर
उसके अक्स पर कुछ लिखना

कोई
ऐसी बात
तुम
उसमें कहना
जिसमें
सिर्फ़ तुम रहना

अपने
हर जज़्बात के साथ
सब
उजले - मैले ख्वाब के साथ
छू
लेने वाले एहसास के साथ

पर
जब भी धूमिल हो जाए
लिखने में ख़ुद का दिखना
तब
कभी नहीं ; तुम कुछ भी लिखना

क्योंकि बेहद ज़रूरी है
अपने
लिखे में दिखते रहना
और
ख़ुद को देखते हुए लिखते रहना...
~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~
तब ही ख़ुद को अच्छा लगेगा और दुनिया को सच्चा लगेगा . … शुभ सृजन ... रहे अनंत !!…

नीलेश जैन ,
मुंबई
२७-०७-२००९

Thursday, July 23, 2009

हताशा को हताश कर दो !

कभी ...अगर ऐसा लगे की तुम्हारे लिए हर रास्ता बंद हो गया है... तुम्हे अब कहीं भी; कितना भी, कभी भी स्वीकार किए जाने की संभावना मात्र भी शेष नही है ... तो भी घबराना नहीं ! कभी ऐसा भी लगेगा कि लोग तुम्हारे लिए अपने दरवाज़े बंद कर रहे हैं; तो भी हताश न होना क्योंकि हो सकता है कि वो दरवाज़ा सिर्फ़ वो तुम्हारे लिए ही बंद नही कर रहे हों; अपने लिए भी कर रहे हों ...सिर्फ़ तुम उनसे वंचित नही हो रहे हो...हो सकता है वो भी तुमसे वंचित हो रहे हों... परिस्थितियां दोनों के लिए समान हो सकती हैं। वैसे भी जब बाहर के दरवाज़े बंद होते हैं; तभी अन्तस् का --अन्दर का दरवाज़ा खुलता है; इसीलिए ठुकराए जाने से कभी न डरो क्योंकि ...

ठुकराया जाना तो एकलव्य और कबीर होने की शर्त होता है!

आपका नीलेश
मुंबई २४-०७-२००९

Friday, July 17, 2009

एक मशवरा जो है मशवरे से बड़ा

अक्सर लोग दूसरों को 'ये करो या वो करो' के मशवरे दिया करते हैं । असल में साहिलों पर बैठकर मशवरे देना बहुत आसान होता है; बजाय इसके कि ख़ुद पानी में उतरा जाए । जो लोग निष्क्रिय आलोचना मात्र ही करते हैं कोई सार्थक प्रयास नहीं ...ऐसे लोगों से मेरा कहना है :
बहुत हो चुके दूर से मशवरे
आइए अब पतवार में हाथ दीजिए
बहुत, बहुत हो चुकी है बारूद
अब हो सके तो थोड़ी आग दीजिए
बहुत च्छी है आपकी खामोशी
मगर वक्त की दरकार है
अब आवाज़ में आवाज़
दीजिए।।

...हाँ ये बात उस पर भी लागू होती है ...जो लिख रहा है :
नीलेश, मुंबई
१७-०७-०९

Monday, July 13, 2009

परम्परा की भी एक परम्परा होती है

'परम्परा' अतीत से वर्तमान तक का सफर होती है । जब इसमें वर्तमान की युगीन मांग को पूर्ण करने की शक्ति शेष नहीं रहती है तो यह धीरे-धीरे जड़ होने लगती है...और जब ये नकारात्मक परिणाम देने लगती है तो इसे ही 'प्रथा' मान लिया जाता है। इसलिए परम्परा को प्रथा मानने की भूल से बचना होगा और समझना होगा कि :

हर युग को
वर्तमान के सन्दर्भ में
परम्परा का परिष्कार चाहिये
अन्यथा आविष्कार चाहिये ......!

तट सिर्फ़ नदी के नहीं होते ...

तट सबको चाहिए ... तट नदी के लिए ही नहीं हम सबके लिए जरूरी हैं ... तट तो नदी होने की शर्त है ... दरिया तब तलक ही जिंदगी देता है, जब तलक अपने तटों के दरमियाँ बहता है ... उसी में उसकी भी ज़िन्दगी है और औरों की भी ... इसीलिए हमे भी समझना ही होगा कि...

यदि
तट होते
तो
नदी
बह पाती
... बह जाती !

गुरु हर युग में अपेक्षित है

यह जरूरी नहीं कि गुरु सबको मिल सके मगर उसकी तलाश जरूरी है फिर वह चाहे पत्थर की मूरत में ही क्यों न हो ...जो बोल तो नहीं सकती पर इसका एहसास तो कराती है कि कोई हमसे श्रेष्ठ है। इसीलिए कुछ पंक्तिया गुरु के नाम :

तुम्हारी सान* पर मिल सके मुझको धार
इसलिए मुझे अपना लोहा भूलना ही होगा!
और कलयुग के इस एकलव्य को भी
एक द्रोण ढूंढ़ना ही होगा
!!

(सान* = वह पत्थर जिस पर धार तेज़ की जाती है )

आपका अपना
नीलेश, मुंबई
१३/०७/०९